मानव अधिकार से सामाजिक समन्वय की ओर

 

मानव अधिकार से सामाजिक समन्वय की ओर

  डॉ. एम. डी. थॉमस

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‘अधिकार’ वह बुनियादी हकीकत है जिसके बलबूते इन्सान की ज़िंदगी जीने लायक बनती है। वह उसे अपने प्राण के साथ प्राणदाता से धरोहर के रूप में मिला है। माँ की कोख से लेकर मौत तक वह ज़िंदगी से इतना घुला-मिला हुआ है कि उससे अलग कर ज़िंदगी की कल्पना तक कतई तर्क-संगत नहीं लगती है। अधिकार इन्सान के लिये जीवन का ही पर्याय साबित होता है।

‘मानव अधिकार’ इन्सान को भ्रूण से लेकर पलने-बढऩे के तौर-तरीकोंको ही नहीं, सुचारू रूप से पूरी ज़िंदगी जीने की तमाम संभावनाओं को भी अपने दायरे में शामिल करता है। रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ इज्जत, मान-सम्मान, प्यार, सहयोग, आदि भी इन्सान के लिए जीने की खातिर अनिवार्य हैं। सच कहा जाय, मानव अधिकार ही वह बुनियाद है, जिस पर ज़िंदगी की इमारत खड़ी होती है। जीवन की उच्चतम मंजिल की ओर ले जानेवाली सीढ़ी को इसी बुनियाद पर सदैव टिकी रहना दरकार है। 

मानव अधिकार में ‘हर एक को अपना हिस्सा मिले’, यह भाव निहित है। इन्साफ का भी बस यही कायदा है। नीति और व्यवहार का इन्तज़ाम ऐसा हो जिससे संसार के सभी मनुष्यों का ‘समान रूप से कल्याण’ हो और ‘सब उन्नत, सन्तुष्ट और सुखी रहें’, यही अधिकार का व्यापक मकसद है। ‘मानवता की प्रतिष्ठा’ का भाव मानव अधिकार की अवधारणा का मर्म है। यह पुनीत भाव किंचित भी भंग न हो, मानव अधिकार की, बस यही प्रतिबद्धता है।

विडंबना यह है कि आम तौर पर समूचे समाज के और खास तौर पर हमारे देश के कुछ लोग अपने पास आय से या जरूरत से बहुत ज्यादा माल के मालिक बने हुए हैं और बहुतेरे लोगों को, मारे-मारे तरसते-फिरते रहने पर भी, अपनी बुनियादी जरूरतें नसीब नहीं होती हैं। गरीबों, कमजोरों, ताकतहीनों और आवाजहीनों की यह लाचारी इस बात की सबूत है कि भारत के सामाजिक जीवन का संतुलन बुरी तरह से बिगड़ा हुआ है। ऐसे हालात में जीने के लायक माहौल मुहैया कराने और देश में तालमेल बनाये रखने के लिये मानव अधिकार का एक पुखता मुहिम ही चलाना पड़ता है।

भारत देश की सबसे बड़ी दुर्दशा है कि ज्यादातर लोग आर-पार तौर पर खुदगर्ज हैं और बहुत आसानी से वे अपने में ही खो जाते हैं। कुछ इने-चुने लोगों को छोड़कर​ बाकी आबादी में औरों के लिये अपने भीतर जगह नहीं के बराबर है। दूसरों के लिये, देश के लिये और समाज के लिये कोई खास सोच उनके मन में अक्सर कौंधती ही नहीं। सबसे ज्यादा मुनाफा पाने के चक्कर में घोटालेबाज ही नहीं ज्यादातर लोग धड़ल्ले से औरों के हक का जबर्दस्त हनन करते दिखायी देते हैं। कुल मिलाकर शासक वर्ग भी ‘सर्व जन सुखाय’ के प्रति जिम्मेदार नहीं साबित होता है। देश में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है, मानो वह हर एक के नस-नस में बसा हुआ है। मानव अधिकार की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है, इसमें कोई शक नहीं है। 

मानव अधिकार की गरिमा समाजिक समन्वय में प्रतिफलित होती है। व्यक्ति और व्यक्ति, समुदाय और समुदाय तथा संस्था और संस्था के दरमियान मेल-जोल और ताल-मेल हो, सामाजिक जीवन के संतुलन के लिये यह जरूरी है। अन्वय बराबर और सम्यक रूप से हो, तभी समन्वय की भावना बनी रहेगी। हर एक अपनी हद में रहे, हक हरदम फर्ज से युक्त हो, कोई ऊँच-नीच और छोटे-बड़े का भाव न रखे, औरों को खुद से श्रेष्ठ माने, एक दूसरे की मदद करे और साथ-साथ चलने में माहिर बने, ये सब बातें मानव अधिकार की तहजीब के कानून-कायदे हैं। मानव अधिकार की ऐसी बारीकियों से सामाजिक समन्वय की दिशा सहज रूप से खुल जाती है। इन्सानी ज़िंदगी को जीने की बस यही कला है। फकत जरूरत इस बात की है कि मानव अधिकार की चेतना हर एक नागरिक का अपना अहम ‘मिशन’ बन जाय, जिससे सामाज में आमूल-चूल बदलाव आये। सामाजिक जीवन में समरसता और समन्वय की भावना ही मानव अधिकार की तहजीब का सहज और सुखद फल है।  

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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गगन स्वर (सामाजिक और साहित्यिक पत्रिका, मासिक), गाजियाबाद, पृष्ठ संख्या 37 -- दिसंबर 2013-मार्च 2014 में प्रकाशित 

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